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हमारे पास करप्शन का कोई इलाज नहीं, ये जोक है कोई खांसी, जुकाम थोड़े ही है

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jan 20 2019 10:55PM | Updated Date: Jan 20 2019 10:55PM
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ग्वालियर। चांद अपने शबाब पर आकर सर्द रात में अपनी चांदनी बिखेर रहा था तो शायर और गजलकार अपनी मौसिकी से फिजा की रंगत बदलकर मखमली मोहब्बत के साथ यादों के सफर का सुखद अहसास कराकर रिश्तों की गर्महाट पैदा कर रहे थे। पल-पल परवान चढ़ते शायराना अंदाज का शमां ऐसा बंधा की सर्द रात को भी जवां कर दिया। मौका था ग्वालियर व्यापार मेले में आयोजित किए गए अखिल भारतीय मुशायरे का। जहां देशभर के शायरों ने कलाम पेश कर महफिल की रंगत बढ़ाई। 

 
मंजिलें गुम हैं लोग हैं गुमराह, क्या कयामत की है घड़ी आई। मौत को जिंदगी समझते हैं लोग, कैसी जहजीब है नई आई।। 
मीत बनारसी,
खूबसूरत हैं आंखें तेरी, रातों को जागना छोड़ दे।
खुद-व-खुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे।। 
हसन काजमी, लखनऊ
घर के कुछ काम हैं तो दिल्ली की तैयारी है। 
कार दफ्तर की है और टूर भी सरकारी है। 
शम्स तबरेजी, चंडीगढ़
इल्म जब होगा किधर जाना है, साथ तब तक तो गुजर जाता है। इश्क कहता है ..भटकते रहिए और तुम कहते हो कि घर जाना है। 
मदन मोहन दानिश, ग्वालियर 
हमारे पास करप्शरन का कोई इलाज नहीं। ये जोक है कोई खांसी, जुकाम थोड़े ही है। 
नश्तर अमरोहवी, अमरोहा,
फैंका हुआ किसी का न छीना हुआ मिले, मुझको मेरे नसीब का लिखा हुआ मिले। सोने का भी सबूत शराफत को कहिए, आंसू हमारी भाल पर ठहरा हुआ मिले।। 
अबरार काशिफ, अमरावती 
फिर ये हुआ कि उसे गले से लगा लिया, वो थक चुका था मेरी मोहब्बत के सामने।वो सफर काटे रात हैं गांव में, फैसले होते थे दिन की छांव में। 
नईम फराज, अकोला
मजबूरी के नाम पर सब छोड़ना पड़ा, दिल तोड़ना कठिन था मगर तोड़ना पड़ा। मेरी पंसद ओर थी सबकी पंसद और थी, इतनी सी बात पर घर छोड़ना पड़ा। 
अंजूम रहबर,भोपाल
इस कदर क्यों सफाई दे रहा है मुझे सब कुछ दिखाई दे रहा है। गैर की क्यों शिकायत कीजें, भाई को जख्म भाई दे रहा है। 
शकील जमाली, दिल्ली 
हर शय में ढूंढने लगे नुकसान फायदा, इंसान हम कहां रहे बाजार हो गए। बेहतर था सीख लेते कोई हाथ का हुनर, पढ़ लिखकर मेरे बच्चे तो बेकार हो गए। 
मालिकाजादा जावेद, नोयडा
हमको हमारे सब्र का खूब सिला दिया, मांगी दवा न दी गई, दर्द बढ़ा दिया। उनकी मुराद है, यहीं खत्म न हो ये जिंदगी, जिसने जरा बढ़ाई लौ उसको बुझा दिया। इकबाल अजहर, दिल्ली 
महफिल से परे बैठे हैं, हम उदासी से भरे बैठे हैं। वो अगर छू ले तो जिंदा हो जाएं, जाने हम कब से मरे बैठे हैं। सालिम सलीम, नोएडा
 
हम अपनी जान के दुश्मन को जान कहते हैं, मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं। 
मेरे अंदर से एक-एक करके सब कुछ हो गया रुखसत, मगर एक चीज बाकी हैं, जिसे ईमान कहते हैं। राहत इंदौरी, इंदौर
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