25 Apr 2024, 20:05:05 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android
Business

पशुचारे का उत्पादन बढ़ाने से घटेगी दूध उत्पादन की लागत : डॉ. यादव

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Dec 18 2019 1:34PM | Updated Date: Dec 18 2019 1:35PM
  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

नई दिल्ली। हाल ही में दूध का दाम बढ़ाते समय डेयरी कंपनियों ने कहा कि पशुचारा महंगा होने के कारण उनकी लागत बढ़ गई, लेकिन झांसी स्थित भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान के कार्यकारी निदेशक डॉ. विजय कुमार यादव का कहना है कि हरी घास की खेती बढ़ाकर दूध उत्पादन की लागत कम की जा सकती है। बकौल डॉ. यादव हरी घास (पशुचारा) की खेती पर ध्यान देने से न सिर्फ दूध उत्पादन की लागत कम होगी, बल्कि 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के मोदी सरकार के लक्ष्य को हासिल करने में भी मदद मिलेगी।
 
केंद्रीय पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय की ओर से हाल ही में 16 अक्टूबर 2019 को जारी 20वीं पशुधन गणना के आंकड़ों के अनुसार, देश में पशुधन की आबादी 53.57 करोड़ हो गई है जबकि 1951 में पशुधन आबादी महज 29.28 करोड़ थी। इस प्रकार 1951 के बाद देश में पशुधन की आबादी में 82.95 फीसदी वृद्धि हुई है। डॉ. यादव बताते हैं कि इस अवधि के दौरान पूरे भारत में चारागाहों का क्षेत्रफल घटकर महज 10 फीसदी रह गया है और हरी घास (पशुचारा) की खेती के रकबे में भी कोई खास वृद्धि नहीं हुई है।
 
उन्होंने बताया कि देश में खेती के कुल रकबे का महज चार फीसदी क्षेत्रफल में पशुचारे की खेती होती है। ऐसे में पशुचारा की किल्लत स्वाभाविक है, जिसके कारण इस साल ज्वार, बाजरा, मक्का और जौ जैसे पशुचारे में इस्तेमाल होने वाले मोटे अनाजों के दाम में भारी वृद्धि देखने को मिली। डॉ. विजय कुमार यादव ने कहा कि पशुचारे की किल्लत दूर करने के दो उपाय हैं।
 
पहला यह कि इसकी खेती के रकबे में इजाफा हो और दूसरा संस्थान द्वारा तैयार की गई उन्नत किस्मों का बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जाए जिससे किसानों को कम रकबे में भी बेहतर उपज मिल सकती है। उन्होंने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) के तहत आने वाले भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान ने विगत 30 साल में पशुचारे की करीब 250 किस्में तैयार की है, जिनमें से 20 नई किस्में 2017-19 के दौरान तैयार की गई हैं।
 
डॉ. यादव ने बताया कि पशुचारे की ये किस्में दो प्रकार की हैं, जिनमें एक बहुवर्षीय है जिससे किसान चार-पांच साल तक पशुचारे की फसल ले सकते हैं जबकि दूसरा एक वर्षीय है जिससे एक ही साल फसल ली जा सकती है। उन्होंने बताया किसान हालांकि पशुचारे की इन नई किस्मों की फसल उगा रहे हैं, इसलिए पशु चारागाहों में इतनी बड़ी कमी होने के बावजूद पशुओं के लिए हरी घास वर्षभर मुहैया हो रही है, लेकिन नई प्रौद्योगिकी का बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने पर वे कम भूमि में भी अच्छी पैदावार ले सकते हैं और पशुचारे की किल्लत की समस्या का समाधान निकल सकता है।
 
डॉ. यादव ने बताया कि आज दूध उत्पादन की कुल लागत का 70 फीसदी हिस्सा पशुओं के चारे पर खर्च होता है जबकि 30 फीसदी पशुओं की बीमारी व अन्य देखभाल पर, अगर पशुचारे में हरी घास का इस्तेमाल ज्यादा होगा तो पशुपालकों की लागत में भारी कमी आएगी। उन्होंने बताया कि बाजार में मिलने वाले कैट्लफीड के मुकाबले हरी घास काफी कम खर्चीली होती है, जिससे पशुपालक अपनी लागत कम कर सकते हैं। भारत में खरीफ और रबी दोनों सीजन में हरी घास की खेती होती है। खरीफ सीजन की प्रमुख हरी घास की फसल ज्वार, बाजरा, लोबिया, मक्का और ग्वार है, जबकि जई और मक्के की खेती रबी सीजन में होती है। 
  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »