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लालसेना ने बिना खून खराबे के उड़ाये थे अग्रेंजो के छक्के

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Aug 14 2019 12:41AM | Updated Date: Aug 14 2019 1:09AM
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इटावा। स्वतंत्रता आंदोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के अहम योगदान से हर देशवासी भलीभांति परिचित है लेकिन कुछ ही लोगों को पता होगा कि दशकों तक दस्यु गिरोहों के आंतक का पर्याय बनी चंबल घाटी में लालसेना ने बगैर खून खराबे के अंग्रेजी हुकूमत के छक्के छुड़ा दिये थे। आजादी की यह मुहिम अर्जुन सिंह भदौरिया नामक शख्स ने चलाई थी। इसी मुहिम के चलते क्षेत्र के लोग उन्हे कंमाडर के नाम से पुकारते थे। अर्जुन सिंह भदौरिया की अगुवाई मे चंबल मे स्थापित की गई लालसेना की यादे आज भी लोगो के जहन मे समाई हुई है।

लालसेना के सदस्य इटावा जिले के टकपुरा गांव निवासी गुलजारी लाल के पौत्र गणेश ज्ञानार्थी बताते है कि उनके बाबा रायॅल एयर फोर्स मे सेवारत हुआ करते थे लेकिन 1920 मे महात्मा गांधी के अग्रेंजो भारत छोडो आवाहन से प्रेरित होकर नौकरी छोड कर आजादी के आंदोलन मे कूद पडे। उनके साथ हरपाल सिंह चौहान भी हुआ करते थे। दोनो लोग कंमाडर साहब के साथ मिल कर चंबल मे नदी के किनारे तोप चलाने से लेकर बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी बाकायदा अपने साथियों को दिया करते थे। ज्ञानार्थी ने कहा कि लालसेना मे करीब पांच हजार के आसपास सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन मे हिस्सेदारी किया करते थे।

लालसेना से लोगो के जुडाव इसलिए बढा था क्योंकि ग्वालियर रियासत की सहानूभूति अग्रेंजो के प्रति हुआ करती थी इसलिए जब चंबल मे कंमाडर साहब ने लालसेना खडी की तो लोग एक के बाद एक करके जुडना शुरू हो गये और एक समय वो आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल मे नजर आने लगा। कंमाडर अर्जुन सिंह भदौरिया के बेटे सुधींद्र भदौरिया बताते है कि चंबल मे लालसेना के जन्म की कहानी भी बडी ही दिलचस्प है। उस समय हर कोई आजादी का बिगुल फूंकने मे जुटा हुआ था। इसलिए उनके पिता भी आजादी के आंदोलन मे कूद पडे। उन्होने चंबल घाटी मे लालसेना का गठन करके लोगो को जोडना शुरू छापामारी मुहिम जोरदारी के साथ शुरू की।

उनका कहना है कि इसकी प्रेरणा उनको चीन और रूस मे गठित लालसेना से मिली थी जो उस समय दोनो देशो मे बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था। लालसेना के गठन के वक्त जो प्रण उनके पिता ने चंबल के विकास के लिए किया था वो उन्होने राजनैतिक पारी के साथ होने पर पूरा करने मे भी कोई हिचक नही दिखाई। उनको आज भी याद है कि चंबल नदी पर पुल का निर्माण नही था तब पीपे के पुल बना हुआ था। जब कभी भी चंबल के पार जाना होता था तब पीपे के पुल के ही माध्यम से जाना हुआ करता था।

वर्ष 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाल सेना का गठन किया, जिसने उत्तर प्रदेश के इटावा मे चंबल घाटी मे आजादी का बिगुल फूंकते हुए अग्रेजी राज के छक्के छुड़ा दिए। इस क्रांतिकारी संग्राम में पूरा इटावा झूम उठा तथा करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई। कमांडर ने आजादी की जंग पूरी ताकत, जोश, कुर्बानी के जज्बे में सराबोर हो कर लड़ी। उन्होंने बराबर क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की तथा ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया। इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया।

  अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ पैरों में बेड़िया डालकर रखा जाता था। अपने उसूलों के लिए लड़ते हुए वे तकरीबन 52 बार जेल गये। आजादी की लड़ाई में अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत का बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को स्वतंत्रता सेनानियों ने कमांडर की उपाधि से नवाजा। कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया। तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होने हार नहीं मानी जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुन कर उन्हे सर आंखों पर बैठाया। 10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया।

1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया । बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाको चने चबबा दिये। इसी के बाद उन्हें कमांडर कहा जाने लगा। 1957,1962 और 1977 में इटावा से लोकसभा के लिए चुने गए। कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया संसद में भी उनके बोलने का अंदाज बिल्कुल जुदा रहा। 1959 में रक्षा बजट पर सरकार के खिलाफ बोलने पर उन्हें संसद से बाहर उठाकर फेंक दिया गया। लोहिया ने उस वक्त उनका समर्थन किया। पूरे जीवनकाल में लोगों की आवाज उठाने के कारण 52 बार जेल भेजे गए। आपातकाल में उनकी पत्नी तत्कालीन राज्यसभा सदस्य सरला भदौरिया और पुत्र सुधींद्र भदौरिया अलग-अलग जेलो में रहे। पुलिस के खिलाफ इटावा के बकेवर कस्बे में 1970 के दशक में आंदोलन चलाया था। लोग उसे आज भी बकेवर कांड के नाम से जानते हैं।

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