नई दिल्ली। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसमें जस्टिस एसके कौल और केएम जोसेफ शामिल हैं, सोमवार को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगी। 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भागों में बांटा था, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दायर की गईं।
इससे पहले 27 सितंबर को तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने 1994 के अपने उस फैसले पर पुनर्विचार के मुद्दे को 5 जजों वाली संविधान पीठ को सौंपने से इनकार कर दिया था जिसमें कहा गया था कि 'मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं' है। यह मुद्दा अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई के दौरान उठा था।
इस्माइल फारूकी ने अयोध्या में भूमि अधिग्रहण को चुनौती दी थी जिस पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि नमाज पढ़ना मस्जिद का अनिवार्य हिस्सा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए अर्जी लगाई गई थी। मुस्लिम समुदाय इससे सहमत नहीं था और वह चाहता है कि इस पर दोबारा से विचार किया जाए।
तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने 2:1 के बहुमत से अपने फैसले में कहा कि अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दीवानी वाद का निर्णय साक्ष्यों के आधार पर होगा और पूर्व का फैसला इस मामले में प्रासंगिक नहीं है। जस्टिस अशोक भूषण ने अपनी और सीजेआई दीपक मिश्रा की ओर से फैसला सुनाते हुए कहा था कि उसे यह देखना होगा कि 1994 में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने किस संदर्भ में यह फैसला सुनाया था।
इस पीठ के सदस्य जस्टिस एस अब्दुल नजीर ने फैसले से असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि धार्मिक आस्था को ध्यान में रखते हुए यह फैसला करना होगा कि क्या मस्जिद इस्लाम का अंग है और इसके लिए विस्तार से विचार की आवश्यकता है। 30 सितंबर, 2010 को अपने फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दी जाए।