नई दिल्ली। कुछ जानेमाने पत्रकारों और शिक्षाविदों ने मौजूदा माहौल में स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया की जरूरत पर बल देते हुए शनिवार को आरोप लगाया है कि इस समय मीडिया का एक बड़ा वर्ग जनसरोकारों को नजरअंदाज कर रहा है। इन बुद्धिजीवियों ने ‘2019 की चुनौतियां और मीडिया की भूमिका’ विषय पर मानवाधिकार संगठन ‘जनहस्तक्षेप’ की ओर से यहां आयोजित संगोष्टी में कहा कि संचार माध्यमों का एक बड़ा तबका सिर्फ सत्ता पक्ष की सराहना करने में लगा हुआ है जबकि मीडिया को सरकार के कामकाज का सही विश्लेषण करना चाहिए।
उन्होंने आरोप लगाया कि खास तौर से मौजूदा सरकार के आने के बाद से मुख्यधारा के मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं और जनता के सरोकारों को नजरंदाज कर रहा है। उन्होंने कहा कि ऐसे में नैतिक और ईमानदार पत्रकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है तथा नागरिक समाज और उसके संगठनों को उनके पक्ष में मजबूती से खड़ा होना चाहिये। जानेमाने स्तंभकार प्रेम शंकर झा ने कहा कि मौजूदा दौर में बेरोजगारी, खेती के संकट, प्रतिगामी शिक्षा नीति आदि पर असंतोष को दबाने के लिये धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान के नारों का सहारा लिया जा रहा है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लगातार दमन का निशाना बनाया जा रहा है। गौरक्षा और लव जिहाद के नाम पर लोगों पर हमले किए गए जिससे देश का सतरंगी तानाबाना छिन्नभिन्न होने के कगार पर पहुंच गया। उन्होंने पश्चिम बंगाल पुलिस और केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के बीच हाल के टकराव को देश के संघीय ढ़ांचे के लिए खतरे की घंटी बताया।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने आरोप लगाया कि मीडिया का एक तबका समाचार और विचार के नाम पर झूठ और दुष्प्रचार फैला रहा है और कहा कि उसके सामने विवेकशील नागरिकों की बेबसी अफसोसजनक है। उन्होंने एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया की जरूरत बतायी जो जनता तक पहुंच कर उसे सचाई से वाकिफ करा सके। वरिष्ठ पत्रकार हरतोश सिंह बल ने कहा कि मीडिया पर हमले औपनिवेशिक वैश्विक पूंजी के लिये प्रतिस्पर्धी वफादारी का नतीजा हैं। ये हमले मौजूदा सरकार से पहले भी होते थे और इसके हटने के बाद भी इनके जारी रहने का अंदेशा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ईश मिश्र ने कहा कि लोकतंत्र में मीडिया का दायित्व सिर्फ सूचनाएं देना ही नहीं बल्कि सत्ता से सवाल पूछना भी है। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल उसे अपना यह दायित्व पूरा नहीं करने दे रहे हैं।