नई दिल्ली। सिकल सैल डिजीज रक्त का एक आनुवांशिक विकार है जिसमें लाल रक्त कोशिकाओं का आकार हंसिया के आकार का हो जाता है और उनमें ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कम हो जाने से प्रभावित बच्चों को पूरी ऑक्सीजन नहीं मिल पाने से वे अनेक रोगों का शिकार हो जाते हैं तथा व्यक्ति दीर्घकालिक एनीमिया से पीड़ति हो जाता है। विश्व सिकल सैल दिवस के मौके पर सोमवार को यहां अपोलो अस्पताल के चिकित्सकों ने संवाददाता सम्मेलन में इस बीमारी की गंभीरता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारत इस रोग की दृष्टि से विश्व में दूसरे स्थान पर है और देश में यह रोग दक्षिण भारत, छत्तीसगढ़ , महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
अपोलो अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक और सिकल सैल रोग विशेषज्ञ डॉ। गौरव खारया ने बताया कि यह रक्त का आनुवांशिक विकार है और जब नवजात शिशु पांच माह का होता है तो उसमें रोग के लक्षण दिखाई देते हैं जिनमें त्वचा का पीलापन आंखों में सफेदी आना, प्रमुख है। ऐसे बच्चे जब बड़े होते हैं तो उनमें थकान अधिक होती है हाथ और पैरों में सूजन तथा दर्द होता है। ऐसे मरीजों में अन्य प्रकार के संक्रमण भी अधिक होते हैं और उम्र बढ़ने के साथ उनका शारीरिक विकास भी प्रभावित होता है तथा उनमें देखने की समस्या भी हो सकती है। डॉ। खारया ने बताया कि सिकल सैल से पीड़ति बच्चों की विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है और इन्हें अधिक ऊंचाई तथा विषम तापमान से बचाना चाहिए और नियमित तौर पर टीकाकरण भी जरूरी है।
ऐसे बच्चो के शरीर में पानी की कमी नहीं होने देनी चाहिए औरउन्हें पेनिसिलिन ,हाईड्राक्सयुरिया, फोलिक एसिड और एंटीमलेरियल प्रोफाइलेक्टिसस देनी जरूरी है। इसके अलावा बहुत जटिलता होने पर तत्काल चिकित्सक की सलाह ली जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि हर व्यक्ति को अपने सिकल सैल की स्थिति विवाह पूर्व जान लेनी चाहिए और इस पर मात्र पचास रूपए का सामान्य रक्त परीक्षण से पता लग जाता है कि उस व्यक्ति में ऐसी कोई आनुवांशिक बीमारी है या नहीं । इसी तरह महिलाओं को भी विवाह पूर्व अपनी स्थिति जान लेनी चाहिए और अगर उनमें भी यह विकार है तो ऐसे दो व्यक्तियों को विवाह करने से बचना चाहिए क्योंकि ऐसी स्थिति में एक -एक जीन माता और पिता से मिलकर बच्चे में प्रभावी हो जाते हैं और अपना पूरा असर दिखाते हैं। डॉ।
खारया ने बताया कि इस बीमारी से पीड़ति व्यक्ति 40से 45 वर्ष तक ही जी पाता है और छोटे बच्चों में देखभाल तथा दवाओं से इस पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है लेकिन ये उपाय भी उसकी जीवन प्रत्याशा में कोई इजाफा नहीं कर पाते हैं। इसका कारगर उपाय बोन मैरो ट्रांसप्लांट है जिसमें प्रभावित बच्चे की अस्थि मज्जा में उसके सगे भाई बहनों से रक्त कोशिकाएं निकाल कर प्रत्यारोपण किया जाता है और ऐसे बच्चे पूरी जिंदगी जीते हैं। इस दौरान अपोलो के चिकित्सकों ने नाइजीरिया के कईं बच्चों से पत्रकारों को मिलवाया जो इसी बीमारी से पीड़ति थे और उनमें बोन मैरो ट्रांसप्लांट किया गया है। एक छोटी बच्ची के तीन वर्ष के भाई ने अपनी बोन मैरो कोशिकाएं देकर अपनी बहन की जिंदगी बचाई है तो एक मां ने अपने बेटे को बोन मैरो दी है। इस पर लगभग 10 लाख रूपए खर्च आता है।