29 Mar 2024, 13:38:23 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

मुंबई। मुंबई में वर्ष 1910 में प्रदर्शित फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों की भीड़ में एक ऐसा शख्स भी था जिसे फिल्म देखने के बाद अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया। लगभग दो महीने के अंदर उसने शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देख डाली और निश्चय कर लिया कि वह फिल्म निर्माण ही करेगा। यह शख्स और कोई नहीं भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के थे। दादा साहब फाल्के का असली नाम धुंधिराज गोविन्द फाल्के था।
 
उनका जन्म महाराष्ट्र के नासिक के निकट त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 में हुआ था। उनके पिता दाजी शास्त्री फाल्के संस्कृत के विद्धान थे। कुछ समय के बाद बेहतर जिंदगी की तलाश में उनका परिवार मुंबई आ गया। बचपन से ही दादा साहब फाल्के का रूझान कला की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते थे। उन्होंने वर्ष 1885 में उन्होंने जे.जे.कॉलेज ऑफ आर्ट में दाखिला ले लिया। उन्होंने बड़ौदा के मशहूर कलाभवन में भी कला की शिक्षा हासिल की। इसके बाद उन्होंने नाटक कंपनी में चित्रकार के रूप में काम किया।
 
वर्ष 1903 में वह पुरात्तव विभाग में फोटोग्राफर के तौर पर काम करने लगे। कुछ समय बाद दादा साहब फाल्के का मन फोटोग्राफी में नहीं लगा और उन्होंने निश्चय किया कि वह बतौर फिल्मकार करियर बनाएंगे। इसी सपने को साकार करने के लिये वह वर्ष 1912 में वह अपने दोस्त से रुपये लेकर लंदन चले गये। लगभग दो सप्ताह तक लंदन में फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखने के बाद वह फिल्म निर्माण से जुड़े उपकरण खरीदने के बाद मुंबई लौट आये। मुंबई आने के बाद दादा साहब फाल्के ने ‘फाल्के फिल्म कंपनी ’की स्थापना की और उसके बैनर तले ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम की फिल्म बनाने का निश्चय किया। इसके लिये फाइनेंसर की तलाश में जुट गये।
 
इस दौरान उनकी मुलाकात फोटोग्राफी उपकरण के डीलर यशवंत नाडकर्णी से हुयी जो दादा साहब फाल्के से काफी प्रभावित हुये और उन्होंने उनकी फिल्म का फाइनेंसर बनना स्वीकार कर लिया। फिल्म निर्माण के क्रम में दादा साहब फाल्के को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह चाहते थे कि फिल्म में अभिनेत्री का किरदार कोई महिला ही निभाये लेकिन उन दिनों फिल्मों में महिलाओं का काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। उन्होंने रेड लाइट एरिया में भी खोजबीन की लेकिन कोई भी महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई। बाद में उनकी खोज एक रेस्ट्रारेंट में बावर्ची के रूप में काम करने वाले व्यक्ति सालुंके से मिलकर पूरी हुयी।
 
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