ज्योतिष में होलिका दहन को सम्वत जलना भी कहते हैं अर्थात होलिका का दहन एक संवत की समाप्ति का सूचक है, और नए संवत के प्रवेश का प्रतीक भी। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि होलिका दहन हेतु प्रशस्त मानी गई है। होलीका दहन से पूर्व शुभ मुहूर्त में होलिका की पूजा करने का विधान है। होलिका के पूजन में रोली आदि सामान्य पूजन सामग्री के अतिरिक्त गोबर के बने हुए *बड़कुलों* का विशेष महत्व माना गया है। गंध, अक्षत, पुष्प, मूंग, हल्दी, श्रीफल एवं बड़कुल होलिका में अर्पित करते हुए उसके चारों और कच्चा सूत बांधना चाहिए। तत्पश्चात होली की तीन परिक्रमा करते हुए एक लोटा जल होलिका के समीप चढ़ा देना चाहिए। होलिका दहन के पश्चात होलीका में कच्चे आम, नारियल, सप्तधान्य एवं नई फसल आदि वस्तुओं की आहुति दी जानी चाहिए। इसके पश्चात होलिका के समक्ष हाथ जोड़कर अपनी मनोकामनाएं निवेदित की जानी चाहिए। तांत्रिक कृत्यों की दृष्टिकोण से होलिका दहन की रात्रि स्वत: सिद्ध मानी गई है। होलिका की अग्नि को अत्यंत पवित्र एवं देवीय माना गया है। मान्यता है कि इस अग्नि में अभिचार कर्मों को नष्ट करने के साथ अनिष्ट निवारण की अद्भुत क्षमता होती है। होलिका दहन में हमारे द्वारा जो वस्तु अर्पित की जाती है उसमें यही भावना निहित होती है कि होलिका के साथ साथ हमारी आपदाएं एवं विषमताएं भी भस्म हो जाए।
*ज्योतिर्विद राजेश साहनी रीवा*
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